शनिवार, 17 अप्रैल 2010

सामाजिक परिवर्तन

सामाजिक परिवर्तन या सामाजिक पतन
------------------------------------बोधिसत्व कस्तूरिया
२०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा
सामाजिक परिवर्तन किसी भी समाज की गतिशीलता का द्योतक है! परन्तु यदि वो किसी अन्य समाज का अन्धा अनुकरण करे, तो निश्चित रूप से समाज धराशायी होने के कगार पर है! आज भारतीय समाज भी कुछ ऐसी विसंगतियों का शिकार हो रहा है! साथ ही दुर्भाग्य है कि देश की सर्वोच्च संस्था उस का अनुमोदन कर रही है! चर्चा और विवाद का विषय यह है कि क्या इस संस्था को अपने नियमित कार्य-कलापों (जिनका अम्बार लगा पडा है) को छोड इन विसंगतियों का भागीदार होने का हक हासिल है और यदि है, तो दिया किसने?
अभी हाल मे एक निर्णय मे सम -लैंगिकों को साथ रहने और विवाह की अनुमति देना तथा अन्य निर्णय मे लिव-इन-रिलेशनशिप(सह-जीवन यापन) को तर्क संगत ठहराना -कहां तक न्याय संगत है?आज समाज टीवी,सिनेमा और मोबाइल समाज मे किस कदर सामाजिक प्रदूषण फ़ैला रहे है, सर्व विदित है!
अतः हमारी सर्वोच्च संस्था का दायित्व भारतीय सांस्क्रतिक समप्दा को अक्छुण्य बना कर रखने का है न कि उस प्रदूषण को बढावा देने का? आज इलैक्ट्रानिक मीडिया निरंकुश है कोई चैनल पंजाबी संस्कति का अपमान करते हुए ब्रा-पैन्टी पहना कर ट्प्पे-गिद्दा दिखा रहा है तो कोई चैनल राजस्थान मे नारी शोषण के नाम पर बांझ स्त्री पर उसके देवर और ज्येष्ट से संमोग कराकर गर्भ धारण कराने को न्यायसंगत दिखा रहा है!
हांलाकि इस विषय पर महिला आयोग ने चैनल को नोटिस दिया है,परन्तु सैंसर बोर्ड सिनेमा से भी अधिक जन मानस तक पहुंचने वाले माध्यम पर अंकुश रखने मे बिलकुल असफ़ल रहा है! दूसरी तरफ़ सेंसर बोर्ड लेट्नाइट वयस्क फ़िल्म दिखाने को व्याकुल है१ मोबाइल व्यापार समबंध के बजाय प्रेम समब्न्धों को मल्टीप्लाई कर रहा है, ग्रह कलह को भी उच्च वरीयता प्रदान कर रहा है! ऐसे समय मे उक्त निर्णणयों का आना उस समाज की अन्धानुकरण है जहां विवाह मात्र एक सामाजिक अनुबन्ध(सोशल कांन्ट्रैक्ट) है,न कि सात जन्मो का बन्धन ! आज उस समाज मे तलाक की दर ५५% है जबकि हमारे देश मे महज़ २%,परन्तु लिव -इन रिलएशन के कारण महिलाओ के उत्पीडन के २५००० मुकदमे लम्बित पडे हैं! महिला आयोग का औचित्य इस निर्णय के बाद समाप्त हो जायेगा तथा भारतीय दण्ड विधान से बहु-विवाह को अपराध की श्रेणी से हटाना पडेगा,अप्राक्रतिक मैथुन वैध हो जायेगा !मेरे कहने का अर्थ् यह है कि सर्वोच्च संस्था को नये मानक स्थापित करने के स्थान पर मौज़ूद विधानो के संदर्भ मे ही व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त है और यदि वह इसका उल्लंघन करती है तो जनता की अदालत मे जबाब देय है! यही प्रजातन्त्र की माग है कि हमारी सभ्यता एव संस्क्रति की उधेड-बुन नही की जाय!लिव-इन-रिलेशनशिप को ज़ायज़ ठहराने के बाद विवाह की सामाजिक मान्यता क्या रह जायेगी ? आज माता-पिता,रिश्ते-नातेदार कितने जतन और उत्साह से विवाह करते हैं,और इस बंधन को अपना कर्तव्य भी समझते हैं,जबकि पाश्चात्य समाज़ मे ऐसा नही है फ़िर हम उनका अनुकरण क्यो कर रहे?इसी प्रकार यदि सम्लैगिक रिश्तो को तरज़ीह दी जायेगी ,तो क्या यह प्रक्रति के साथ खिलवाड नही है? प्रक्रति या ईश्वर ने नर और मादा की उतपत्ति ,सभी जीवो को संतति -अर्थात् नई पीढी के उत्पादन हेतु किया गया है और कोई प्राणी इसका उल्ल्घन नही करता है !क्या मानव को विवेक और बुद्धि इसीलिये प्रदान की गई थी कि वो ईश्वर की सत्ता को चुनौती दे डाले और जो कार्य पशु नही करते वो भी कर सके ? समभवतः न्याय मूर्तिजन जो जैसा चल रहा है के आधारपर निर्णय दे रहे है! इस परिचर्चा पर आपके विचार सादर आमंत्रित हैइस परिचर्चा को अभियान बनाने मे आपका सह्योग अपेक्च्छित है! इसके लिये इस परिपत्र को अधिक से अधिक लोगों तक ई-मेल के माध्यम से भेजने का प्रयास करें! धन्यवाद!

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