रविवार, 20 मार्च 2011

होली

होली के पावन पर्व पर चिन्तन के साधको को प्यार भरा प्रणाम !आज अभी अभी मेरे मित्र विजय पाल सिंघ जो डीएवी कालेज के अद्यापक है कहने लगे कि "कितना वाहियाद त्योहार है?" मैने कहा कि मनुष्य के अन्दर कुछ पाशविक प्रव्रत्तियां होती हैं , जिन्हे कभी न कभी मूत्र-विसर्जन की तरह बाहर निकाल देना चाहिये,अन्यथा समाज़ मे उनके कारण विक्रतियाँ पैदा हो जायेंगी! हमारे भाई-बहन,माँ-बेटे जैसे रिश्ते ही कलंकित होते देर नही लगेगी! उन्होने कहा" अब तो ब्राह्मण ही सबसे ज्यादा दारू पीते है!कोई डिग्री कालेज का प्रोफ़ेसर है,दूसरा बिद्युत विभाग का आला अधिकारी तीसरा दरोगा और चौथा पंचायत अधिकारी !सब पीकर ऐसी अश्लील हरकते कर रहे थे कि शर्म से मेरा सर झुक जा रहा था!"

मैने कहा यह तो कल्युग है जहाँ सब उल्टा होता है ! आप तो शुक्र मनाइये कि आप ब्राह्मण नही है! ब्राह्मण् को ब्रह्म का ग्यान नही है इसीलिये यह सब हो रहा है लेकिन मैने कहा मै ब्राह्मण हूं पर नही पीता कारण मै उसे खरीद(एफ़ोर्ड) नही सकता और वो कर सकते है! सभी को रू० ४०००० के आस -पास मासिक वेतन मिल रहा है और ऊपरी सो अलग ! तो दोष ब्राह्मण का नही बल्कि लक्छ्मी का है जिसने न केवल उनकी मति मारी है बल्कि वहाँ से निकलने का अपना रास्ता भी बना लिया है ! कबीर दास जी ने कहा है "माया महा ठगनि हम जानी !"किसी भी ब्राह्मण ने यह नही जानने की कोशिश की कि होलिका जिसका दहन हुआ था वह किसका प्रतीक है? उसे जलाते है पर उसी की जय भी बोलते है ! जलाते है क्योंकि परम्परा है पर यह नही जानते क्यूं जलाई जाती है? होलिका प्रारूप है उस अहंकारी हिरण्य कश्यप की बुराइयों का जिनकी आड मे वह प्रभु की सत्ता को चुनोती देता था ! आज का त्योहार जिन बुराइयो को जलाने का है ,हम उसी के गुलाम हो गये है! आज के दिन भारत वर्ष मे इतनी दारू पी जाती है जितनी कि पेरू जैसे देश का पूरा सालाना बजट होता है!अब चिन्तन कौन करता है ?मै या आप जैसे बेबकूफ़ जिनको ज़्यादा कमाने और गवाने के लायक बुद्धि है ही नही ! धन्य हो कलियुग की !

बोधिसत्व कस्तूरिया एड्वोकेट २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७

1 टिप्पणी:

  1. शुभागमन...!
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    नये ब्लाग लेखकों के लिये उपयोगी सुझाव.

    टिप्पणीपुराण और विवाह व्यवहार में- भाव, अभाव व प्रभाव की समानता.

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