इस भौतिक वादी युग मे आज चिन्तन का विषय है कि जब घर -घर हिंसा और प्रतिकार का साम्राज्य फ़ैल रहा है ,"गांधीजी कितने प्रासंगिक हैं? खेद का विषय है कि गांधीजी के देश मे घरेलू हिंसा के बढते हुए विवाद इस बात के द्योतक हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी होते हुए भी समाज की उपेछा कर रहा है ! उसे सामाजिक नियमो का उल्लंघन करने मे कोई डर नही लगता है !अर्थ प्रधान समाज मे दहेज़ की बलि-वेदी पर र्सैकडों नारियों का जीवन और परिवार बर्बाद हो रहे है! गांधीजी नारी को पूज्यनीय स्थान प्रदान करना चाहते थे इस लिये उनके विचारों की प्रासंगिकता बढ गई है!
हिंसा का अर्थ हाथ -पैर या द्न्डे से मार-पीट ही नही है, बल्कि बस मे चढ्ते हुए लडकियो से अपशब्दों का स्तेमाल,कार्यालयो मे सह कर्मणियो पर फ़ब्ती कसना भी भावनात्मक हिंसा की श्रॆणी मे आता है! परिवार मे बढती हुई शारीरिक हिंसा के विरोध मे स्वर ऊंचे हुए हैं,फ़िर भी एक भय का वातावरण कि सामाजिक बदनामी न हो मुश्किल से २०% शिकायत ही दर्ज़ होती है ! नारी को प्रतिरोध के लिये अबला से सबला बनने की गांधी जी की कल्पना को साकार करना ही उनको सच्ची श्र्द्धांजलि होगी ! अभी हाल मे घर मे बच्चो को मारने-पीट्ने पर भी माता -पिता पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार ने गांधीजी के विचारों को एक सम्बल प्रदान किया है !विद्यालयों मे अध्यापक-अध्यापिकाओं पर अंकुश लगाना, तकनीकी विद्यालयो और यूनीवर्सिटी मे रैगिंग विरोधी कानूनो का कडाई से पालन करवा कर सरकार ने हिंसा के विरुद्ध अपनी कटिबद्धता को प्रदर्शित किया है !
सरकार द्वारा कानून के ज़ोर से हिंसा का विरोध उतना कारगर नही होगा जितना कि गांधी दर्शन को "मनसा वाचा कर्मणा" अपने मे समाहित करना होगा !
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुंज सिकंदरा आगरा २८२००७ मो :9412443093


कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें