रविवार, 7 अप्रैल 2013

प्रजातंत्र और समाजवाद का सपना


समय और सत्ता परिवर्तन के साथ ही नेताओं की सोच संकुचित होती जा रही है ! देश की आज़ादी के लिये न्यौछावर होने की सामर्थ्य रखने वाले नेताओं की कमी ने इस देश के प्रजातंत्र की जडों को खोखला कर दिया है,धर्म निर्पेछ समाज वादी समाज की अवधारणा को ध्व्स्त कर दिया है ! अब धर्म निर्पेछता की चादर ओढ जातिवाद, भाई-भतीजावाद का खूनी खेल खेला जा रहा है,परिणामतः टिकट के आवंटन से लेकर मंत्री-पद आवंटन भी इससे अछूता नही रहा है !
जान की बाजी लगाने वाले नेतांओ का स्थान ऐसे नेताओ ने ले लिये है जो सी०बी०आई०और जेल जाने  के भय से सत्ता पछ को स्वार्थ भाव से समर्थन दे रहे है,क्यों कि अपने काले कारनामो के कारण उनमे इतना मनो बल ही नही है कि वे जन हित की सोच सही निर्णय ले सकें! समाज्वाद का बिगुल बेशक बजाते हों ,दलितों की मसीहा,धरती पुत्र बेशक कहलाते हो परन्तु उन्का समाज केवल उन्का परिवार और ज़्यादा से ज़्यादा उनकी बिरादरी तक ही सीमित है! नेता इतने संकीर्ण विचार-धारा के हो गये है कि जन हित मे लगने वाले धन को किसी वर्ग विशेष मे बाँट ,किसी राज्य को विशेष पैकेज देकर घाटे का बज़ट पेश करने से भी नही डरते परिणामतः हर भारतीय पैदा होने से पहले ही हज़ारो रुपयों के कर्ज़ के तहत ही इस धरा पर अवतीर्ण होता है !राज्य सरकार का कर्ज़ अलग और केन्द्र सरकार का अलग क्योंकि संविधान मे भी तो अलग -अल्ग विषयो की अलग सूची है! हाँ राज्य सकार का कर्ज़ा रुपयों मे और केन्द्र का डालर मे हो जाता है ! अभी उ०प्र० मे क्न्या विद्द्या धन बँटा,लैप-टाप बँटा,"मेरी बेटी उसका कल"मे एक -एक मुस्लिम बालिका को ३०००० हज़ार बँटे परन्तु जन सामान्य के गले पर टैक्स की रेती चला कर ! कोई सरकार चाहे वो विकास  के लिये , सड्को की बात करे,गरीबो के लिये सस्ते भवनो की बात करे,उसका प्रतिफ़ल नेताओं को ही मिलता है परिणामतः ४-५ वर्षों मे ही उनकी पूजी ४००-५०० गुना तक बढ जाती है और सकार का घाटा बढ कर दूना हो जाता है ,तो फ़िर विकास कैसे हो रहा है यही चिन्तन का विषय है! अरबो रुपया तो माननीयों के भवन और सुरछा पर खर्च हो रहा है यदि वही समाप्त कर दिया जावे तो घाटे की राज्नीति समाप्त हो सकती है,लैकिन आज वे जन सेवक की परिभाषा भूल कर राजा भैया बन गये है!यदि वे जनता के नुमाइन्दे है तो जनता से इअतने भयाक्रान्त क्यो हैकि उनकी सुरछा के लिये दिन रात लाखों पुलिस वाले तैनात है और प्रजातंत्र मे प्रजा के लिये अपराअधियों की धर-पकड के लिये पुलिस का अकाल पड जाता है!
सताधारी कोई भी नेता भूखा-नंगा नही है ,फ़िर उन्हे इतनी मोटी-मोटी तन्खाह, भत्ते, रेल,हवाई किरायॊ मे छूट,बसों मे फ़्री पास क्यों?क्या यह धन जनता पर लगाये जाने वाले टैक्स की बर्बादी नही है ? क्या इसी प्रजातंत्र और समाजवाद का सपना गाँधी और संविधान निर्माताओं ने देखा था?
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

बलात्कार


प्यार और वासना एक दूसरे के पर्याय भी है और मंजिल भी! युवाओं को प्यार की अभिव्यक्ति करने के लिये कई माध्यम है ,परन्तु एक सीमा के भीतर ! गायन,संगीत आदि के माध्यम से यह अभिव्य्कति आदि काल से चली आ रही है ! प्रश्न यह उठता है कि सीमा कौन निर्धारित करेगा? निश्चित रूप से उसको करनी होगी जो उसके प्रतिफ़ल से प्रभावित होगा ,अर्थात नारी- जिसे समाज की बदनामी, गर्भ-धारण की जिम्मेदारी,शिशु को नाम देने और पालन-पोषण का उत्तर दायित्व भी निभाहना है !सह-शिछा मे साथ-साथ पढने से बालक-बालिकाओं को निश्चित तौर पर एक -दूसरे की भावनाओं को समझने की काबलियत मिलती है,परन्तु  यदि वह सीमा के बाहर एके-दूसरे के साथ चोरी-छिपके मिलते है कमरों पर आते जाते है ,देर रात्रि मे एकान्त ढूढते है तो निश्चित तौर पर वासना के करीब पहुँच जायेंगे ! अतः इस  मेल-मिलाप को माँ-बाप के अँकुश , निगरानी और मार्ग निर्देशन की आवश्यकता होती है !वैसे यदि हम समाचारों को गौर से देखे तो पायेंगे कि पढे-लिखे लडके -लडकी मर्यादाओं के साथ स्वेछा से यौन समबन्ध स्थापित करते है,लेकिन अनपढ लोग ,दुराचारी, नशेबाज ही बलात्कार करते है और वह यह समाज मे नही परिवार मे निजी सम्बन्धों से लेकर पत्नी तक को इसका शिकार रोज़ बनाते है,जिससे उन्के भीतर के पुरुष को तुष्टि मिलती है कि स्त्री उस्की ज़ायदाद है वह उसका जैसे चाहे जब चाहे प्रयोग कर सकता है! परन्तु शिछित समाज मे नारी अपने  पति को भी मन से राजी न होने पर सम्भोग की इज़ाज़त नही देती है ! बलात्कार एक सामाजिक बुराई से ज़्यादा दिमागी दीवालियापन है ,जिसमे वासना का सुख कम क्रूरता अधिक होती है!

बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७