शनिवार, 7 दिसंबर 2013

परिवेश और संस्कॄति

समय के साथ परिवेश और संस्कॄति भी बदल रही है इसका आभास अब भारतीय सभ्यता मे भी दॄष्टिगोचर होने लगा है ! साठ के दशक मे औटो रिक्शा नही होते थे ,मानव चालित रिक्शॊं का प्रचलन था,टैम्पो नही होते थे इक्का-ताँगा होते थे जिन्हे घोडे चलाते थे ! चलाने वाले मानव भी भोले -भाले, जिनके संस्कारों मे मान्वीयता और शालीनता झलकती थी,जो माताजी-बहनजी और चाचा के सम्बोधन से आत्मीयता का परिचय देते थे ! परन्तु आज युग बदला और मानव के तौर तरीके भी बदल गये ! माँ-बहन तो मडैम और चाचा, अंकल हो गये !उसी तरह उनकी मानसिकता भी बदल गई ,हर लड्की -औरत मे उनको अपनी  मैडम दिखने लगी !अस्पताल मे अब कोई सिस्टर नही सब मैडम हैं,विद्यालय की अध्यापिकायें भी बहिन जी शब्द से गुरेज़ करने लगी हैं और मैडम मे शान समझती है,परन्तु इस शब्द के पीछे का भावार्थ उनकी बुद्धि से परे है! हाँ यह अवश्य है कि बढते हुये महिला अपराधों  के पीछे इसी मानसिकता का बोलबाला है !
यदि हम महिला सश्क्तीकरण के परिवेश मे देखे तो स्थिति अधिक भयावह है ! अब पति न तो "एजी" और पत्नी "सुनती हो"नही रह गई है अब नाम से सम्बोधन भी ’दिनेश के पापा’ और ’गीता की मम्मी’ नही अनिल और टीना डार्लिग हो गया है ,पता ही नही चलता पति को बुला रही है या बेटे को ! माताओ मे साडी भी साठ के दशक की महिलाओं तक सीमित रह गई है!आज बेटी चुस्त टाप- ज़ीन्स से अपने माँ-बाप के सामने अपने वछ्स्थल और उन्नत उरोज़ नही दिखलाती तो मार्डन नही कहलाती और माँ भी सलवार सूट से कम मे अपने को बैक्वर्ड समझती है इस लिये बेटी को बेटा बनाने की आड मे खुद भी बहन जी से, औरों के लिये मैडम बनने मे अपने को धन्य समझती है , चाहे बाद मे वे ही लोग उससे मैडम जैसा व्यवहार क्यों न कर दें!

बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्द्रा आगरा २९२००७